Monday, July 27, 2009

यह कैसा सच! और किसका सच?

वाह भई वाह! गांधी जी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनके द्वारा सच के पक्ष में की गई बातें किस तरह कुतर्क बन जाएंगीं. वाह! सब जैसा चल रहा है उसे चलने दो, कोई नंगा हो कर सरे आम घूमें अपनी नंगई को अपनी पहलवानी और बहादुरी बता कर खुद ही तमगे बांध ले. और समाज चूं भी न करे. क्योंकि उसका निजी मामला है. वाह क्य दोहरी मान्यताएं है. एक तरफ तो हम उसी टीवी पर किसी व्यक्ति के दोहरे और अवैध समबंधों के स्टिंग दिखा कर उन्हे सरे समाज बदनाम और घिनौना साबित करते रहें और दूसरी तरफ बेशर्म हो कर अपने करतूत को हंगारने वालों को ईनाम देते रहें. वाह क्या खूब दौर आ गया है भाई. सच और अपराध के कबूलनामे में क्या कोई अन्तर नहीं है? मुझे आप बताईये? जिस समाज में सब मानते हैं (भले ही उसका पालन ना करें)कि भारत में एक से ज्यादा के साथ शारीरिक संबधों को मान्यता नहीं है, और कभी नहीं रही, जो लोग इसके उत्तर में हरम का जिक्र करना चाहें वह भी सुन लें कि यह गलत शौक माना जाता था, चरित्र वान कि निशानी इसे कभी नहीं माना गया.(एक से अधिक शादी भी संतति के लिये स्वीकर्य की जाती रही थी) भारत अपने आप में पहला ऐसा देश है जहां लोगों ने सम्पन्न्ता और विलासिता के चरम तक का सुख भोगा और फिर अन्त में यह निर्णय लिया कि अंतिम सुख और परम सुख त्याग में है, संयम मे है. यहीं पर इस बात की खोज का रास्ता बनाया गया कि आखिर इस मानव जन्म का मतलब क्या है? हमें यह शरीर मिला किस लिये है? यदि सेक्स करने के लिये ही मिला है तो फिर यह तो पशु भी करते है. और बिना किसी विकार के करते है. कोई कुत्ता ऐक से अनेक के साथ सम्बध बना कर न तो चरित्रहीन हुआ और न ही कभी उसे एड्स जैसी बीमारी ही हुई. जंतुओं का अध्य्यन करने वाले इस बात को बता सकते है कि पशु सेक्स के बारे में मानव से ज्यादा साफ दृष्टि रखते है.
सवाल सच का है. वास्तव में सच ही ईश्वर है, भगवान बुध ने भी कहा और फिर गांधी ने भी दोहराया. पर हम जिसके कहने से डरते है. या जिसके कहने से कोई हमसे कटता है. टूटता है, या फिर ज्यादा भावना मे बह कर कोई अपनी जीवन लीला ही खत्म कर लेता है. ऐसी स्थति किसी भी स्थिति में सच के लिये घातक है. चर्चों मे पादरी के सामने जाकर अकेले में लोग अपने द्वारा किये गये अनुचित कर्मों को बताते है. पर किस नीयत से . इस नीयत से कि मुझसे अन्जाने में यह हुआ. भविष्य में मैं ऐसा नहीं करूंगा. पर आपके समर्थन वाले सच के सामने में लोग बेसर्मी पर आतुर हैं. लालच में अंधे हो गये है. और टीआरपी के चक्कर में टीवी वाले उसका व्यापार करते हैं. यह कैसा सच है. जिस सच को सामान्य रूप से स्वीकार करने के लिये शर्मिंद्गी का पैबंद पहना चाहिये उसे बेसर्मी के साथ सारे समाज के सामने ऐसे स्वीकार करना कि लो मैने यह किया है अब जिस्से मेरा जो उखडता हो उखाड ले. यह क्या है. ऐसे तो कल को अपराधी सरेआम कहेंगे कि मैने यह अपराध किया है. और आप उसे १ करोड रुपये दे देना. तो क्या यह गलत काम और बुराई को सामाजिक मान्यता दिलाने जैसा नहीं लगता. एक सच और यह भी तो है. कि आप सब इस सच का सामना कि पैरवी करने वाले और विरोध करने वाले दरसल दोनों एक ही बात को कह रहे है. जो कहते हैं कि यह समाज पर अच्छा असर नहीं डालेगी आप इसकी पैर्वी करने वाले भी इस बात को मान रहे है इसी लिये आप उन्ही प्रसंगो को मह्त्ता दे रहे है. क्योंकि आप जानते है. कि यदि कोई पति यह कह दे कि मैने अपनी पतनी से समबध चलाने के लिये अपनी एक लाख बुरी आदतों को छोडा है और पूरी तरह से इसके लायक बन्ने का प्रयास किया है . और मैं अपनी की गई सारी गलतियों के लिये शर्मिंद हूं और पश्चाताप करने के लिये तैयार हूं तो भला इस्से आपको क्या मिलना है. यह सुनकर कोई पत्नी न तो रोएगी और ना ही खुदकुशी करेगी. तो आपकी सनसनी वाली पहली और अन्तिम इच्छा तो गई पानी में. यह बात तो सनसनी नहीं फैलाएगी ना. एक लडकी सरेआम अपने कई अवैध सम्बंधों की बात अपनी मां के सामने स्वीकार करे और फिर गर्दन ऊंची उठा ले, यह तो मां और बेटी दोनों के लिये ऐसी बात है कि अब नजर कैसे मिलायेगे? किसी स्वस्थ समाज में तो ऐसा ही होना चाहिये. पर मैं एक बात और कहना चाह्ता हूं कि यदि वास्तव में समाज में सच का सामना करने की अकल आ भी गयी हो तो पहले यह तय तो कर लिया जाये कि सच और सच्चा जीवन कहते किसे है. जरा सा भी किसी का अहित हुआ तो व्यक्ति के लिये पाप हो गया. इस मान्यता वाला देश संस्कृति की बात करता है तो क्या गलत करता है. जहां कसाई भी किसी को जिबह करने से पहले अल्लाह ताला से अपने किये के लिये माफी मान्गता हो वहां आपके भौंडे सच पर लोग तीखी प्रतिक्रिया करेंगे ही. जहां लोग अपनी बेटियों और घर की इज्ज्त को अपनी जीवन से भी ज्यादा तर्जीह देते हों वहां मौज मस्ती के नाम पर बीविया बदलने और नाईट क्लबों मे जाने वाले कुछ लोग इसे अपनी बहादुरी मानते हों तो माने पर उनको यह बता कर उनके ख्यालात और ईमान से खिलवाड करना क्या मानवाधिकार का हनन नहीं है. लोग तर्क देते हैं कि आप टीवी चैनल बदल लो. वाह यह खूब रही. क्यों बदल लें. क्या हमसे आप उस चैनल को देखने का अधिकार छीनना चाहते है. क्या यह हमारी मौलिक्ता का हनन नही है. सब जानते हैं कि सब अपनी पत्नी के साथ सोने का अधिकार रखते है तो क्या यह सार्वजनिक करने जैसी बात है. ऐसे प्रोग्राम वास्तव में तुच्छ सोच का परिचायक है इसके सिवाय कुछ नहीं है. यदि आदमी अपने गुनाह कबूल करके चौडा होता हो तो यह किसी भी समाज के लिये अक्छी बात नही हो सकती. अपनी औरत को छोड कर दोसरी औरत या अपने आदमी को छोड कर दूस्ररे आदमी से अवैध समबंध वस्स्तव में कोई स्वीकार करने जैसी चीज नहीं है. कार्यक्रमों से सोचिये भला किसी को क्या ऐंतराज होता . क्यों होता पर जब किसी के सार्वजनिक कत्ल से हमें आनंद आने लगे, किसी को घेर कर मारने में हम मनोरंजन का अह्सास करने लगे. किसी की तो जिन्दगी उजडे और किसी की जेब भरे और कौई इससे मनोरंजन भी पा जाये तो यह शर्म की बात नहीं है क्या? सोचिये.. जो कबूल कर रहा है, और जो उसके कबूलनामे से पीडित हो रहा है... दोनों के बारे में समाज को सोचना चाहिये...
एक और हकीकत जो इस कार्यक्रम को किसी भी रूप से मान्य नही बनाती वह है कि जिस मशीन की बात सच की जांच करने के लिये की जाती है वह पूरी तरह प्रमाणित नही है कि वह सच बताती ही है. यह एक ऐसी ही मान्यता है जैसे कि हाथ की लकीरों की इस्थिति से किसी के भाग्य का फैंसला किया जाता हो.
एक और बात यह कि सोच और सच यह दो अलग पहलू है. सच वह है जो घटित हो चुका है और सोच मसलन कि क्या आप यह सोचते है... चाहते है.. चाहेंगे... यह सवाल सच नही है. बल्कि व्यक्ति की मानसिक इस्थिति है. आपने किसी का मर्डर करने की सोची और आपने किसी का मर्डर कर दिया या किया यह दोनों बात एक जैसा न तो भाव रखती है और न ही परिणाम. अत इस शो में आपने किया है या नहीं यह तो ठीक सच को इंगित करता है पर आपने ऐसा सोचा है यह कौन सा सच हुआ साहब मानव की सोच उसके मन पर निर्भर है, परिस्थित पर निर्भर है और मन गतिमान है उसका क्या भरोसा. आप कीसी से पूछिये कि क्या आप यह चखेंगे , व्यक्ति कह सकता है नहीं लेकिन हो सकता है तुरंत आपको खाते देख वह चख ही ले. या पहले कह दे हां और चीज को देख कर उसका मन बदल जाये और वह ऐसा न करे... यह क्या सच की स्थिति हो गई... इस कार्यक्रम का सवरूप विकृत है. यह जोडने वाला नही तोडने वाला है. वास्तव में विधवंश से आनंद लेने की प्रवति वाले लोगों को इसका समरथन करना चाहिये... और शायद वही इसके समर्थन में खडे भी है.. पर क्या वह खुद विध्वंश का दंश झेलने की हिमात रखते है. क्या ऐसे प्रोग्राम को संचालित करने वाले किसी भी ए बी सी की बहन का घर किसी के सार्वजनिक कबूलनामे से टूट जाये तो क्या वह इस घटना को सार्वजनिक मनोरंजन के कार्यक्रम के रूप में ले सकते है. जीवन और कमाई, दोनों अलग अलग उद्यम हैं. धर्म के साथ कमाई जोड कर हुई अंधेरगर्दी के कारण ही हम शायद इस दौर तक पहुंचे है. वर्ना हमारी जीवन के शोधार्थियों ने जीवन के मूल तत्त्वो को एकदम अलग अलग स्तंभों के रूप में परिभाशित किया था. धर्म अर्थ काम और मोक्ष पर हमने खूब कुठाराघात किये. अर्थ के चक्कर मे बाकी तीनों स्तंभो को मन चाही जगह पर रखा और मजे ले रहे है... शो चले या ना चले पर मेरी इच्छा है कि एक दिन सब लोग सच की राह पर जरूर चलें. और ऐसा कोई काम ना किया जाये जिसे बताने से डरा जाये या किसी की जान हमारे सच के कारण ही चली जाये...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

5 comments:

Unknown said...

वो फिल्म आयी थी - रोटी
उसमे़ गाना था.
जिसने पाप ना किया हो जो पापी ना हो.
ऐसे लोग मिलना दुर्लभ होगा कि जिसने कभी पाप ना किया हो ऐसे हे ऐसा भी मुश्किल है कि जो झूठ ना बोला हो.
सच का सामना बच्चे कर सकते है़ बडे नही़
इस शो से ईनाम की राशि कम कर द्र. शो फ़्लोप हो जायेगा.

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने.

VIJAYENDRA said...

bahut sahi kaha apne..
badhai..

Rashmi Swaroop said...

सर जी, ये T.V. वालो के दिमाग तो यदा कदा खराब होते ही रहते हैं... पर जब तक लोग इनकी TRP बढ़ाते रहेंगे इनका दिमाग और ख़राब होता रहेगा... लगता है जैसे मनोरंजन का अकाल हो गया है, जो लोगो को इस स्तर तक गिरने कि नौबत आ गयी है, जब TV वालो के पास कुछ दिखाने को नहीं होता, तो वो अपनी नाकाबिलियत छिपाने के लिए ऐसे मसालों का प्रयोग करने लगते हैं... शर्मनाक है !
लेख बहुत ही अच्छा है.
धन्यवाद
रश्मि.

Rashmi Swaroop said...

और हाँ सर, ये 'सच वाली मशीन' सचमुच हस्यापाद है! मैंने प्राणी विज्ञान कि अपनी किताबो में पढ़ा है कि ऐसा असंभव है, क्योकि मानव मस्तिष्क में स्रावित होने वाले रसायन सरंचना में इतने समरूप होते हैं कि उनके आधार पर मस्तिष्क की सटीक स्तिथि नहीं पता लगायी जा सकती. वैसे भी विज्ञान अभी तक मस्तिष्क की इतनी पड़ताल नहीं कर पाया है. सीधे सीधे जनता को बेवकूफ बनाया गया है.
धन्यवाद.