Saturday, August 15, 2009

...जो विकसित तो न थे पर सुखी अवश्य थे...

आज फिर देश के ऐतिहासिक स्मारक पर प्रधान मंत्री जी का भाषण हुआ. बातें बहुत बडी बडी हुई. ठीक वैसे ही जैसे होती हैं. मैं कोई विश्लेषक नहीं और न ही कोई कोलमिस्ट हूं किं मैं इस भाषण पर टिप्पणी करूं. फिर मैं कौन हूं. जी हां यह सवाल सही है. मैं हूं एक आम आदमी. मैंगो प्युपिल. लाल किले की प्राचीर से ऐलान किया गया कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है. गांव के विकास की जरूरत है. शहरों का विकास तो हो गया. अब गांवों की बारी है. अक्सर यह सवाल भी उठाए जाते रहते है. और ठीक राष्ट्रीय समस्या की तरह कि आज भी देश के अनेक गांव ऐसे हैं जहां बिजली और सडकें नहीं हैं. सवाल वाजिब है. बहस होनी चाहिये इस सवाल पर. पर कितनी बहस, कितने दिन तक? अगर हम सही सही उस सब का संकलन करें जितना इस विषय पर लिखा और कहा गया है तो उसको संजोने के लिये व्यवस्था करना दूभर हो सकता है. मैं विकास की इस परिकल्पना पर कुछ अपनी चिंताएं आपसे बांटना चाहता हूं. एक बात बताईए यदि हम शहरों को विकास का माडल मान लें. तो क्या आप एक स्वर मे सभी शहर वासियों से यह सुन सकते हैं कि यह सही माडल है. और यहा मानव सुरक्षित और सुख से जी रहा है. आम आदमी जो शहरों में रहता है. क्या हर तरह से सुखी है. चैन से जी पा रहा है.? और दूसरा सवाल यह कीजिये, उन लोगों से जो गांव छोड कर विकास का स्वाद लेने के लिये कुछ सालों पहले ही शहरों मे प्रतिस्थापित हुए हैं कि वह यहां इस विकास में ज्यादा सुखी है या उस अविकसित गांव में ज्यादा चैन से रहते थे. ज्यादा मानवीय तरीके से रह पा रहे थे. न कोई झंझट था और न कोई बहुत बडा खतरा ही था. तो मुझे लगता है कि जवाब कोई सकारात्मक नहीं मिलने वाला. लोगों को याद आती है गांव की चैन भरी सांस की. याद आती है गांव के उल्लस की. लोगों के आपसी प्रेम और सदभाव की याद अभी हम सबके दिलों मे बसी हुई है. धन, सुख साधनों और तथाकथित संपंननता से बहुत बडी चीज होती है मन की शांति.. जो गांव में निर्धन से निर्धन के पास पायी जा सकती है पर शहर मे धनिक से धनिक इससे वंचित देखे जा सकते है. तो फिर विकास का मतलब मानव की जीवन के लिये क्या हुआ. बडी बडी इमारतें बना लेना. फैंक्टरिया ही फैक्टरिया लगा लेना. रात दिन काम में लगे रहना. मशीनों के साथ आदमी का भी मशीन हो जाना. शरीर और प्रकृति का जो अपना अलग सम्वाद और सहयोग पर आधारित प्रक्रम है वह सब ध्वस्त कर देना. ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्दों का पैदा हो जाना और उसकी रक्षा और बचाव के नाम पर ही रोजी रोटी कमाने का धंधा बना लेना. जैसा कि इस समस्या पर कई सारी स्वयंसेवी संस्थाएं खडी हो गई है. और पूरे ऐशोआराम से इस काम को कर रही है. न तो उनके पास ग्लोबल वार्मिंग से बचने का कोई ठोस उपाय है और न ही कोई इसका व्यव्हारिक समाधान. यह संस्थाएं कहती तो है. कि ऐसी और फ्रिज की गैस से ओजोन परत का छेद बडा हो रहा है पर कहती हैं ऐसी कमरो में बैठ कर. बडे बडे फ्रिजों कि गिरफ्त में जीते हुए, तो ऐसे में भला ग्लोबल वार्मिंग का क्या बिगाड लेंगे ये लोग. दरसल समाजसेवा भी फैशन और स्टेटस सिंबल की भांति कुछ लोगों में पनप रहा है. जैसे कोई फिल्मी हंस्ती जेल में समाज सेवा करने पहुंच गई हो. पर यह सब ड्रामा है. और ड्रामा वास्तविकता से बेखबर होता है. हां रोचकता और मनोरंजन से भरपूर होता है. पर वास्तविकता में व्यक्ति और प्रकृति को आपसी संबंधों के आधार पर जीवन यापन करना होगा. विकास और ज्ञान दोनों में क्या रिश्ता है. विज्ञान की भी कुछ् सीमाएं होनी चाहिये. एक बात ऐसे समझना चाह्ता हूं कि. हम सबने विज्ञान से यह तो हांसिल कर लिया कि घोर गर्मी हो तो ऐसी से उस्से राहत पाई जा सकती है. हम पाने लगे. पर धीरे धीरे हमारा शरीर उसका आदि हो गया और बिजली के गुलाम हो गये हम. यदि बिजली नहीं तो हमारा जीवन असंभव जैसा लगता है. अब सोचिये अच्छी बात क्या है ? एक कि यदि बारिस हो तो हमें छाता चाहिये. नहीं तो हम बीमार हो जाएंगे, सर्दी हो तो हीटर चाहिये नहीं तो हम ठंड से मर जाएंगे और यदि गर्मी हो तो ऐसी चाहिये नही तो गर्मी से हम मरे. या दूसरी बात कि चाहे जो हो. हमारा शरीर हर मौसम के लिये तैयार है. बारिस में भीग कर हम उत्सव करेंगे. सर्दी में हम स्वास्थ्य वर्धक खा पीकर और ज्यादा कसरत करके शरीर को फैलादी बना लेंगे और गर्मी का हम पर असर ही नहीं होगा. और यह सब बिना किसी अतिरिक्त व्यय के केवल शारिरिक परिश्रम के संभव है. आश्चर्य की बात नही है. हामारे विज्ञानिकों ने यह नुक्ते भी हमें बताए थे. और इनपर आधारित एक जीवन शैली भी विकसित हुई थी जो जंगलों में प्राकर्तिक तरीके से रहते थे. बिना किसी संसाधन के मौज मस्ती के साथ पूरी नैतिकता के साथ , भगवत भजन और जीवन के सुखद अनुभव की कामना को संजो कर. पर इस विकास के भूत ने सब सटक लिया है. धरती पर हमने कंकरीट और तारकोल की परतें चढा दी है. पानी पडता भी है तो धरती के गर्भ तक नहीं जाता और धरती प्यासी मर रही है. सोचिये अभी ऐसा केवल शहरों मे हुआ है. जहां हम विकास मान रहे है. सुख की खोज में भाग रहे है. जब यही विकास नाम का राक्षस गांव में पहुंचेगा तो बिल्कुल वही हाल गांव मे भी होगा. अब एक बात और प्रधान मंत्री को गांव की याद हरित क्रांती के लिये आ रही है. पर हरित क्रांति कैसे होगी जय जवान जय किसान के नारों की खोखलाहट को कैसे ढक पाएंगे हम. ज्याद सम्मान और पावर तो मिले किसी को सब धनिकों और राजशाही ठाठ पर जीने वाले लोगों की संताने तो करें व्यापार, बने मालिक बडी बडी कम्पनियों के. बने इंजीनियर, डाक्टर, और लूटे मौज. किसान करे किसानी, किसान के बेटे जाएं फौज में, खपें सीमा पर, और अब करें हरित क्रांति यानि उपजाएं दालें, अनाज, क्योंकि शहर में इसकी कीमत बढ रही है. और जब किसान लोग सब उपजा लेंगे तो शहरों से सडको के रास्ते उनका सारा अनाज हम शहर ले आएंगे. इस काम के लिये हम गांव तक सडकें भी बनाएंगे. और गांव के आस पास ही हम उनके उत्पादन को पैक करके बेचने के लिये फैक्टरिया भी लगा देंगे. और फैक्टरियो के लिये बिजली भी जरूरी कर दी जाएगी. तो इस तरह गांव में भी विकास पहुंच जाएगा. गांव के लोग जो शाम ७ बजे तक आराम से सो जाते थे या हैं. वह भी देर रात तक इन फैंकटरियों के शोर शराबे से नहीं सो पाएंगे. प्रात काल नहीं उठा पाएंगे, टेंसन मे आजाएंगे तो हम उन्हें शराब पिला कर इस टेंशन से मुक्ति देंगे. विकास का अर्क है यह, इसके बिना पिये विकास की कीमत हमें समझ ही नहीं आती, विकास के इस ढांचे में शराब पीना, पानी पीने से भी ज्यादा जरूरी होता है. वर्ना यह विकास लोगों को मार्फत ही नहीं आयेगा
गांव के विकास की बात सुन कर मैं तो परेशान सा हुआ. पता नहीं क्यों जबकि मैं तो गांव छोड चुका हूं विकसित नगर मे रहता हूं. जिस दूरी को पैदल बडे आराम से आधा घंटे में पार कर सकता था उसक दूरी को पार करने के लिये धक्का मुक्की की इस्थिति में पशीने पशीने हो कर पूरे एक या डेढ घंटे में पार करता हूं. १८ घंटे काम करने के बाद भी गरीबी की रेखा से जरा सा ही ऊपर उठ पाया हूं. और यह जरा सा ऊपर उठपाने की बात कहने की हिम्मत बैंको के हर महीने बंधी हुई किश्तों से ही पैदा हुई है. वर्ना पता नहीं इस विकास नगरी में मैं कैसा और क्या होता... भगवान कोई गांव के अवशेष बचा सके तो बचा लें ताकि आने वाली पीढी को समझाया तो जा सके कि नहीं सुकुन और चैन से जीवन जीने का तरीका इसी धरती पर बहुत पहले इजाद हो चुका था... जो विकसित तो न थे पर सुखी अवश्य थे...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Monday, July 27, 2009

यह कैसा सच! और किसका सच?

वाह भई वाह! गांधी जी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनके द्वारा सच के पक्ष में की गई बातें किस तरह कुतर्क बन जाएंगीं. वाह! सब जैसा चल रहा है उसे चलने दो, कोई नंगा हो कर सरे आम घूमें अपनी नंगई को अपनी पहलवानी और बहादुरी बता कर खुद ही तमगे बांध ले. और समाज चूं भी न करे. क्योंकि उसका निजी मामला है. वाह क्य दोहरी मान्यताएं है. एक तरफ तो हम उसी टीवी पर किसी व्यक्ति के दोहरे और अवैध समबंधों के स्टिंग दिखा कर उन्हे सरे समाज बदनाम और घिनौना साबित करते रहें और दूसरी तरफ बेशर्म हो कर अपने करतूत को हंगारने वालों को ईनाम देते रहें. वाह क्या खूब दौर आ गया है भाई. सच और अपराध के कबूलनामे में क्या कोई अन्तर नहीं है? मुझे आप बताईये? जिस समाज में सब मानते हैं (भले ही उसका पालन ना करें)कि भारत में एक से ज्यादा के साथ शारीरिक संबधों को मान्यता नहीं है, और कभी नहीं रही, जो लोग इसके उत्तर में हरम का जिक्र करना चाहें वह भी सुन लें कि यह गलत शौक माना जाता था, चरित्र वान कि निशानी इसे कभी नहीं माना गया.(एक से अधिक शादी भी संतति के लिये स्वीकर्य की जाती रही थी) भारत अपने आप में पहला ऐसा देश है जहां लोगों ने सम्पन्न्ता और विलासिता के चरम तक का सुख भोगा और फिर अन्त में यह निर्णय लिया कि अंतिम सुख और परम सुख त्याग में है, संयम मे है. यहीं पर इस बात की खोज का रास्ता बनाया गया कि आखिर इस मानव जन्म का मतलब क्या है? हमें यह शरीर मिला किस लिये है? यदि सेक्स करने के लिये ही मिला है तो फिर यह तो पशु भी करते है. और बिना किसी विकार के करते है. कोई कुत्ता ऐक से अनेक के साथ सम्बध बना कर न तो चरित्रहीन हुआ और न ही कभी उसे एड्स जैसी बीमारी ही हुई. जंतुओं का अध्य्यन करने वाले इस बात को बता सकते है कि पशु सेक्स के बारे में मानव से ज्यादा साफ दृष्टि रखते है.
सवाल सच का है. वास्तव में सच ही ईश्वर है, भगवान बुध ने भी कहा और फिर गांधी ने भी दोहराया. पर हम जिसके कहने से डरते है. या जिसके कहने से कोई हमसे कटता है. टूटता है, या फिर ज्यादा भावना मे बह कर कोई अपनी जीवन लीला ही खत्म कर लेता है. ऐसी स्थति किसी भी स्थिति में सच के लिये घातक है. चर्चों मे पादरी के सामने जाकर अकेले में लोग अपने द्वारा किये गये अनुचित कर्मों को बताते है. पर किस नीयत से . इस नीयत से कि मुझसे अन्जाने में यह हुआ. भविष्य में मैं ऐसा नहीं करूंगा. पर आपके समर्थन वाले सच के सामने में लोग बेसर्मी पर आतुर हैं. लालच में अंधे हो गये है. और टीआरपी के चक्कर में टीवी वाले उसका व्यापार करते हैं. यह कैसा सच है. जिस सच को सामान्य रूप से स्वीकार करने के लिये शर्मिंद्गी का पैबंद पहना चाहिये उसे बेसर्मी के साथ सारे समाज के सामने ऐसे स्वीकार करना कि लो मैने यह किया है अब जिस्से मेरा जो उखडता हो उखाड ले. यह क्या है. ऐसे तो कल को अपराधी सरेआम कहेंगे कि मैने यह अपराध किया है. और आप उसे १ करोड रुपये दे देना. तो क्या यह गलत काम और बुराई को सामाजिक मान्यता दिलाने जैसा नहीं लगता. एक सच और यह भी तो है. कि आप सब इस सच का सामना कि पैरवी करने वाले और विरोध करने वाले दरसल दोनों एक ही बात को कह रहे है. जो कहते हैं कि यह समाज पर अच्छा असर नहीं डालेगी आप इसकी पैर्वी करने वाले भी इस बात को मान रहे है इसी लिये आप उन्ही प्रसंगो को मह्त्ता दे रहे है. क्योंकि आप जानते है. कि यदि कोई पति यह कह दे कि मैने अपनी पतनी से समबध चलाने के लिये अपनी एक लाख बुरी आदतों को छोडा है और पूरी तरह से इसके लायक बन्ने का प्रयास किया है . और मैं अपनी की गई सारी गलतियों के लिये शर्मिंद हूं और पश्चाताप करने के लिये तैयार हूं तो भला इस्से आपको क्या मिलना है. यह सुनकर कोई पत्नी न तो रोएगी और ना ही खुदकुशी करेगी. तो आपकी सनसनी वाली पहली और अन्तिम इच्छा तो गई पानी में. यह बात तो सनसनी नहीं फैलाएगी ना. एक लडकी सरेआम अपने कई अवैध सम्बंधों की बात अपनी मां के सामने स्वीकार करे और फिर गर्दन ऊंची उठा ले, यह तो मां और बेटी दोनों के लिये ऐसी बात है कि अब नजर कैसे मिलायेगे? किसी स्वस्थ समाज में तो ऐसा ही होना चाहिये. पर मैं एक बात और कहना चाह्ता हूं कि यदि वास्तव में समाज में सच का सामना करने की अकल आ भी गयी हो तो पहले यह तय तो कर लिया जाये कि सच और सच्चा जीवन कहते किसे है. जरा सा भी किसी का अहित हुआ तो व्यक्ति के लिये पाप हो गया. इस मान्यता वाला देश संस्कृति की बात करता है तो क्या गलत करता है. जहां कसाई भी किसी को जिबह करने से पहले अल्लाह ताला से अपने किये के लिये माफी मान्गता हो वहां आपके भौंडे सच पर लोग तीखी प्रतिक्रिया करेंगे ही. जहां लोग अपनी बेटियों और घर की इज्ज्त को अपनी जीवन से भी ज्यादा तर्जीह देते हों वहां मौज मस्ती के नाम पर बीविया बदलने और नाईट क्लबों मे जाने वाले कुछ लोग इसे अपनी बहादुरी मानते हों तो माने पर उनको यह बता कर उनके ख्यालात और ईमान से खिलवाड करना क्या मानवाधिकार का हनन नहीं है. लोग तर्क देते हैं कि आप टीवी चैनल बदल लो. वाह यह खूब रही. क्यों बदल लें. क्या हमसे आप उस चैनल को देखने का अधिकार छीनना चाहते है. क्या यह हमारी मौलिक्ता का हनन नही है. सब जानते हैं कि सब अपनी पत्नी के साथ सोने का अधिकार रखते है तो क्या यह सार्वजनिक करने जैसी बात है. ऐसे प्रोग्राम वास्तव में तुच्छ सोच का परिचायक है इसके सिवाय कुछ नहीं है. यदि आदमी अपने गुनाह कबूल करके चौडा होता हो तो यह किसी भी समाज के लिये अक्छी बात नही हो सकती. अपनी औरत को छोड कर दोसरी औरत या अपने आदमी को छोड कर दूस्ररे आदमी से अवैध समबंध वस्स्तव में कोई स्वीकार करने जैसी चीज नहीं है. कार्यक्रमों से सोचिये भला किसी को क्या ऐंतराज होता . क्यों होता पर जब किसी के सार्वजनिक कत्ल से हमें आनंद आने लगे, किसी को घेर कर मारने में हम मनोरंजन का अह्सास करने लगे. किसी की तो जिन्दगी उजडे और किसी की जेब भरे और कौई इससे मनोरंजन भी पा जाये तो यह शर्म की बात नहीं है क्या? सोचिये.. जो कबूल कर रहा है, और जो उसके कबूलनामे से पीडित हो रहा है... दोनों के बारे में समाज को सोचना चाहिये...
एक और हकीकत जो इस कार्यक्रम को किसी भी रूप से मान्य नही बनाती वह है कि जिस मशीन की बात सच की जांच करने के लिये की जाती है वह पूरी तरह प्रमाणित नही है कि वह सच बताती ही है. यह एक ऐसी ही मान्यता है जैसे कि हाथ की लकीरों की इस्थिति से किसी के भाग्य का फैंसला किया जाता हो.
एक और बात यह कि सोच और सच यह दो अलग पहलू है. सच वह है जो घटित हो चुका है और सोच मसलन कि क्या आप यह सोचते है... चाहते है.. चाहेंगे... यह सवाल सच नही है. बल्कि व्यक्ति की मानसिक इस्थिति है. आपने किसी का मर्डर करने की सोची और आपने किसी का मर्डर कर दिया या किया यह दोनों बात एक जैसा न तो भाव रखती है और न ही परिणाम. अत इस शो में आपने किया है या नहीं यह तो ठीक सच को इंगित करता है पर आपने ऐसा सोचा है यह कौन सा सच हुआ साहब मानव की सोच उसके मन पर निर्भर है, परिस्थित पर निर्भर है और मन गतिमान है उसका क्या भरोसा. आप कीसी से पूछिये कि क्या आप यह चखेंगे , व्यक्ति कह सकता है नहीं लेकिन हो सकता है तुरंत आपको खाते देख वह चख ही ले. या पहले कह दे हां और चीज को देख कर उसका मन बदल जाये और वह ऐसा न करे... यह क्या सच की स्थिति हो गई... इस कार्यक्रम का सवरूप विकृत है. यह जोडने वाला नही तोडने वाला है. वास्तव में विधवंश से आनंद लेने की प्रवति वाले लोगों को इसका समरथन करना चाहिये... और शायद वही इसके समर्थन में खडे भी है.. पर क्या वह खुद विध्वंश का दंश झेलने की हिमात रखते है. क्या ऐसे प्रोग्राम को संचालित करने वाले किसी भी ए बी सी की बहन का घर किसी के सार्वजनिक कबूलनामे से टूट जाये तो क्या वह इस घटना को सार्वजनिक मनोरंजन के कार्यक्रम के रूप में ले सकते है. जीवन और कमाई, दोनों अलग अलग उद्यम हैं. धर्म के साथ कमाई जोड कर हुई अंधेरगर्दी के कारण ही हम शायद इस दौर तक पहुंचे है. वर्ना हमारी जीवन के शोधार्थियों ने जीवन के मूल तत्त्वो को एकदम अलग अलग स्तंभों के रूप में परिभाशित किया था. धर्म अर्थ काम और मोक्ष पर हमने खूब कुठाराघात किये. अर्थ के चक्कर मे बाकी तीनों स्तंभो को मन चाही जगह पर रखा और मजे ले रहे है... शो चले या ना चले पर मेरी इच्छा है कि एक दिन सब लोग सच की राह पर जरूर चलें. और ऐसा कोई काम ना किया जाये जिसे बताने से डरा जाये या किसी की जान हमारे सच के कारण ही चली जाये...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Tuesday, April 28, 2009

जो वोट नहीं देते या देना नहीं चाहते उनसे दो बातें.....

बंधु, क्या आप वोट देने के प्रति उदासीन हैं? आप अपना वोट किसी को भी देना नहीं चाहते? तो मैं आपसे सहमत हूं. आखिर क्यों भई क्यों दे इन धन,बल और तिकडम से टिकट पाये लोगों को अपना वोट. हमारे सामने एक नहीं आनेकों उदाहरण हैं, लोग राजनीती में आये और रातों रात मालामाल हो गये. जनता के हिस्से में इनकी जीत से क्या आया हद से हद कुछ सडके, नाली, पानी की टंकिया बिजली के खंबे (सांसद निधी की रेवडी के समान). आम आदमी की समस्याएं दिन दूनी राज चौगुनी बढ रही है. हर जरूरत के दाम मनमाने ढंग से बढ रहे हैं, चाहे वहा भोजन हो या सेवाएं. कोई दाम पर लगाम नहीं है. सब मनमाने दाम मुह देख कर वसूल रहे है. आम आदमे का जीना मुहाल हो रहा है. पर संसद में कभी ऐसे सवाल या तो उठते ही नहीं या फिर दबा दिये जाते है. क्या देश की सबसे बडी पंचायत में चुन कर पहुंचने वाले किसी भी जनप्रतिनिधी के पास आम आदमी की मूलभूत समस्याओं का समाधान है? और इस्से भी बडी बात यह है कि क्या यह चुनाव के समय अपने आपको कर्मठ और जुझारू बताने वाले लोग वास्तव में कभी आम जनता की समस्याओं से दो चार हुए भी हैं. सब रटे रटाये मुद्दे गिनवाते आ रहे है. जब पता है कि पूरी चादर (व्यवस्था) अनेक जगहों से छेद छेद हो चुकी है तो क्या उसमे केवल पैबंद लगाने से काम चलेगा? हरगिज नहीं चलेगा. पूरी चादर बदलने की जरूरत है, थेकली लगाकर काम चलाने का वक्त अब नहीं बचा. ऐसे में एक काबिल (नैतिक, देशभक्त, त्यागी, और समर्पित) व्यक्ति जो पूरे देश को वास्तव में निस्वार्थ और नैतिक मूल्यों के आधार पर नेतृत्व दे सके, भ्रस्टाचार, लोभ और स्वहित से बडा, व्यक्तित्व है कोई जिसे यह वोट न देने वाले लोग अपना वोट दे सकें.
एक और आधूनिक फैशन चल निकला है. हर कई संस्था और संगठन मुट्ठी बान्धे सामने आ गई है और ऐसे सुबुद्धी लोगों को पप्पू बता रही है. पप्पू यानि कि बुद्धू जैसे अर्थ में इन लोगों का मजाक ऐसे उडा रहे है जैसे कुछ स्थानो पर लिखा होता है ".... के पूत यहा मत .... " यह लोग यह दृस्टांत तो देते है कि आप इन चुनावों में काबिल इंसान को चुन सकते हैं. आप इस समय अपने वोट से व्यवस्था बदल सकते है पर कोई भी इन लोगो के सामने ऐसे अच्छे और सच्चे एक भी उम्मीदवार का नाम नहीं सुझाते.. यदि पूछो तो बोलते है कि आप खुद जानकारी बटोर लो. अब भला अपनी रोजी रोटी मे उलझे इंसान को एक और काम सौंप दिया गया.
खैर मैं भी आज वोट न देने वाले और वोट देने वाले दोनों ही लोगों से अपनी तरफ से एक अपील करना चाहता हूं. और नई दिल्ली क्षेत्र के लोगों से खास कर कि आप इस बार वोट जरूर देना. मेरे कहने से दे कर देखना आपको वोट देकर यह नही लगेगा कि आपने किसी गलत इंसान को वोट दिया है यदि आप मेरे द्वारा बताये व्यक्ति को वोट दोगे तो.. मै इस देशभक्त को पिछले १५ वर्षों से जानता हूं.. यह वास्तव में आधुनिक युग का क्रांतिकारी है, एम ए राजनीती शास्त्र से पढ कर देश कार्य के लिये घर से निकल गया देश भर मे चल रहे रास्ट्रवादी आंदोलनों से जुडा रहा दिल्ली मे युवा केंद्र की स्थापना की, गरीबों की आवाज उठाई, असम में काम किया. हर सच्चे और जमीन से जुडे संघर्ष मे लोगों की आवाज बना ऐसा व्यक्ति जो आज से पहले कभी कही राजनीती मंच पर नहीं दिखा उसने हमेशा एक बात लोगो से ताने के रूप मे सुनी कि यदि तुम लोग इतने ही समाज और राष्ट्र की चिंता करते हो तो क्यों नही आगे बढ कर इस व्यवस्था को बदलते हो, राजनीती में अच्छे लोग आएंगे ही नहीं तो फिर यह राजनीती साफ कैसे होगी, इसी एक आवाज ने इस व्यक्ति को प्रेरित किया और यह व्यक्ति दिल्ली की एक बहुत ही महत्त्व वाली सीट से आगामी लोकसभा के लिये उम्मीदवार के रूप में सामने आ गया. इस व्यक्ति का नाम है दिनेश कुमार उर्फ सत्य प्रकाश भारत, और चुनाव चिन्ह है "नारियल" नई दिल्ली सीट से यह चुनाव लड रहे हैं, वास्तव में अब देखना यह है कि लोगो की यह उक्ति जीतती है या हारती है कि अच्छे लोगों को चुनावी राजनीती में कदम रखना चाहिये. यदि इस जैसे व्यक्ति साहस दिखा कर एक कदम बढाते है तो यह रास्त इनके लिये आग पर चलने जैसा है, क्योंकी इन जैसे लोगों के पास केवल आदर्श और इनकी दृढता है, संकल्प है, सर्व शुभ की कामना है, त्याग और समर्पण तो खूब है पर जो नहीं है वह है धन, बल और जनसमूह, मीडीया की ताकत, तो ऐसे मे इनकी आवाज नक्कार खानी में तूती की आवाज बन कर कहीं दब न जाये इसका ख्याल आज जागरुक जनता को ही रखना होगा. मैं जानता हूं कि किसी के यूं किसी के तारीफ में कुछ कह देने से बात नहीं बनती, जनता इतनी बार धोखा खाए बैठी है कि अब किसी की बात पर सहज विश्वास भी नही होता. तो मेरा आपसे अनुरोध है कि आप मेरी बातें यूं ही मत मानना मेरा निवेदन है कि आप इस व्यक्ति को एक बार फोन करना और उससे सीधे बात चीत करना .. अपने सवाल उससे पूछना फिर उसे अपना वोट देना खूब ठोक बजा कर ... (यह देश की बडी पार्टीयों का नेता नहीं है कि आप उसे सीधे फोन भी नही कर सकते आप इसे फोन करना यह सुनेगा और यदि आप बुलाअओगे तो आपके मोहल्ले में आपके बुलावे पर ही पहुंच जायेगा, क्योंकी यह है वास्तविक जनता का प्रतिनिधी.. एक बार आप फोन करके देखना मेरी बात पर आपको विश्वास हो जायेगा..) क्या आप ऐसा करेंगे..? सत्य भाई का नंबर है ९९९०६२७९०९. आप यदि सत्य भाई की अपील वाले पर्चे पढना चाह्ते है तो मुझे लिखें मैं आपको मेल कर दूंगा...

आप भी इस रास्ट्र प्रेमी का चुनाव प्रचार करें... नई दिल्ली में रह रहे अपने परिचितों तक इस व्यक्ति का परिचय पहुंचाये... यकीन मानिये आपको राष्ट्र हित के किसी यज्ञ में आहुती देने जैसी शांती और पुण्य की प्राप्ती होगी...

आपका योगेश समदर्शी...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Wednesday, March 18, 2009

हमारे सांसद कैसे हों ?

आप यदि दिल्ली में रहते है या आसपास और रविवार के दिन दिल्ली आ सकना आपके लिये संभव है तो मेरा निवेदन है आप सभी से कि नीचे के पोस्टर को ध्यान से देखिये और २२ मार्च दिन रविवार को दोपहर १ बजे आप इडिया गेट पर पधारें वहा आदमकद कार्टून आपसे बातें करेंगे.. देश और देश के भविष्य की चिंता बांटेंगे आपके साथ.. भाई नीरज गुप्ता के ये कार्टून करेंगे अपील हर भारत वासी से कि वोट दो भई वोट दो और पूरी समझदारी के साथ दो ताकि देश की संसद बन सके वाकई सुंदर और टिकाऊ... जहां पहुंचे लोग देश सेवक ना कि बिकाऊ... तो आ रहे हैं ना आप ! यदि हां तो टिप्पणी में अवगत कराएं और कुछ कहना चाहें तो कहें..

(पोस्टर को अच्छे से पढने के लिये पोस्टर पर चट्खा लगाएं..)

Monday, February 23, 2009

मुझे तो इस पुरस्कार से कोई खुशी नहीं हुई. दुख हुआ, शर्म आई...

मुझे तो इस पुरस्कार से कोई खुशी नहीं हुई. दुख हुआ, शर्म आई. अंग्रेज पहले हमें ब्लैक डाग कहते थे अब एक और अंग्रेज ने स्लम डोग कह दिया और वह आज के दौर मै आजाद भारत के लोगों को पूरी दुनिया के सामने ऐसा कह पाया इस लिये उसे विदेश में ईनाम मिलना तय था...

हो सकता है आप मुझे कोसें, या आपको मेरी बात पर गुस्सा आये. पर सच बोल रहा हूं, जैसा महसूस कर रहा हू ठीक वैसा ही, अपने अब तक के प्राप्त ज्ञान और समझ के आधार पर. आस्कर के मिल जाने से मुझे तो कोई खुशी हो नहीं रही है. बल्की दुख हो रहा है, शर्म आ रही है. सोचिये हमें कैसा लगेगा यदि कोई हमरे घर के किसी बदहाल और दयनीय हिस्से को फोटो खींच कर जगजाहिर करके वाह वाही लूट लेगा तब. जिन गरीब लोगों के जीवन को दिखाया गया है और जिस तरह से दिखाया गया है, उसको देख कर क्या लगता है कि गरीबी, और मजबूरी का जैसे मखौल उडाया जा रहा है. जो झोंपडी मैं रहता है वह वहां क्यों रहता है , क्योंकि एक बडा तबका उनका शोषण करके अपना जीवन यापन कर रहा होता है. आज भी इस देश मे बहुत बडी जनसंख्या २० रुपये रोज से भी कम में अपना जीवन जी रही है ऐसे में हमे सोचना और समझना यह चाहिये कि क्यों ऐसा है कि एक तरफ तो ऐसे उद्योगप्ति है जो लाखों रुपये प्रति मिनट की आय अर्जित कर रहे है और दूसरी तरफ प्रकृति के नियम के एक दम खिलाफ लोगो को, परिवारों को इतनी जगह तक मोह्त्सर नहीं कि परिवार के ४ सद्स्य पूरे पैर फैला कर सो ही जाए, एक के ऊपर दूसरा पैर रख कर सोता है. मजबूरी की फिल्म, गरीब की कविताए, और गरीबों की कहानी में क्योंकी रुदन होता है. हमने अब से नहीं हमेशा से उन गरीबों की जिंदगी को मनोरंजन की वस्तु बनाया हुआ है. हम हंस्ते है. मनोरंजन से भर जाते है. वाह वाह कह उठते है. किसी के सपने कैसे बिखर रहे है, कोई कैसे घुट घुट कर तिल तिल हो कर मर रहा है यह सब कथानक की रूप में हमे खुश करता है, पुरुस्कार दिलात है. पर शर्म की बात है कि इस स्थिती को बदलने की पहल कोई नहीं करता. कल एक पोस्ट पढ रहा था भारतीय पक्ष पर प्रकाशित हुई थी कि एक डाक्टर है जो आज भी १ रुपये रोज की दवा देकर लोगों की सेवा कर रहा है. और ऐसे स्थान पर कर रहा है जहां पर उद्योग चौपट हो जाने से लोग बदहाल हो गये, वह चाहता तो क्या वह शहर मे आकर प्रैक्टिस नहीं कर सकता था, या वही रह कर उन गरीबो की गरीबी के फोटो खींच कर प्रदर्शनी न लगा लेता.. और पुरुस्कार पा जाता. यदि स्लम मे रहने वाले लोग कुत्ते से बदतर जिंदगी जी रहे है तो क्या इसका मजाक उडाया जाना चाहिये. एक मूर्ती हाथ मे लेकर नाचना चाहिये की हा हा स्लम डाग. शर्म ही नहीं आती हमे. कैसे युग के हम साक्षी बन गये जहां सरे आम मजबूर और गरीब बच्चो और लोगों को कुत्ता कहा जाता है, पुरुस्कार दिया जाता है विश्व साक्षी बन जाता है पर हम रीझें भी तो किस बात पर कि हमे कोई विदेशी पहले ब्लैक डाग कहते थे अब हमारी थोडी सी पर्सनैलिटी बदलते हुई स्लम डाग कह रहे है... क्या मजाक है... यार. .. और हम चुप है. ... हम कर भी क्या सकते है. ... जय हो!.... अधेर नगरी.....

Sunday, February 22, 2009

चू.... बन गये साहब! दिल्ली-६ देख कर

गांव में थे न जब बचपन में तो चाचा ताऊ कभी कभी दोनों कानों पर से अपनी हथेली से पकड कर सर से ऊपर सीधा उठा कर बोलते थे कि देख दिल्ली दिखी. हम बच्चों को दिखता विखता तो कुछ था नहीं बस कान बहुत तेज दर्द करने लगता था तो उस कान के दर्द से छुटकारा पाने के लिये कह दिया करते थे हां काका दिख गई. बडे चू... बनाये गये. ठीक ऐसी ही दिल्ली इन मेहरा साहब ने दिखा दी. सच बताऊं तो चू... ही बने. ठगे से उठ कर चले आये. पता नहीं किस जल्दी में था इस फिल्म को लिखने वाला, और उससे भी जल्दी में था निर्देशक. एक बात को सही से और ठहर कर स्थापित नहीं कर पाया. न तो चांदनी चौक ही ठीक से बता सका न जामा मस्जिद की तहजीब ही दिखा पाया. बल्लीमारन अपने आप में किसी सभ्यता से कम नहीं है जनाब आज भी पूरी दिल्ली में घूम जाओ और आपको यदि कोई खांटी पुरानी दिल्ली का आदमी टकरा जाये न, तो आप को एक मिनट लगेगी उसे पहचानने में. सभ्यता है वहां. वोह चाहे जैसी हो. बात तो फिल्म में जरूर करनी चाही उस सभ्यता की जहां कबूतर बाजी इश्क से भी कहीं ज्यादा तन्मयता के साथ लोग करते है. जहां का खान पान आज भी अंगुलियां चाटने को मजबूर करता है. जहां तीज त्योहार आज भी लोगों को उतने ही उत्साहित करते है. पर फिल्म बनाने वाला पता नहीं क्या सोच कर चांदने चौक गया और क्या देख कर मुड लिया. दिल्ली के रहने वाले या चांदनी चौक के रहने वालों से ही यह सवाल पूछा जाये कि फिल्म देख कर लगा कि आपने अपने घर और मोहल्ले की तस्वीर देखी है तो वह सर हिला देंगे. प्यार दिखाया तो वह बकवास. पुरानी दिल्ली मैं ऐसे प्यार हो सकता है भला? एक तरफ तो दिखा दिया कि बुढिया को मोहल्ले के लोग बडी मानते है. उनके लिये सब चिंतित है दूसरी तरफ उसके पोते की धुनाई भी उसी तन्मयता से कर दी. और पोते की पिटाई पर बुढिया कुछ नहीं बोली. दिल्ली में पोते को बेटे से ज्यादा प्यारा माना जाता है. मूल से ब्याज प्यारा की कहावत पोते को पुचकारते हुई कही जाती है. मजाक है क्या? काला बंदर को कोई एक प्रतीक बनाया जाता तो ठीक था, वह पता नहीं क्या क्या प्रतीक हो गया? सांप्रदायिकता को भी फिल्म स्टैब्लिश नही कर पाई. बिना वजह की थोपी हुई साम्प्रदायिकता दिखी.. बडे बडे नामचीन अभिनेता तो फिल्म मे थे पर उनके पात्र उस लिहाज से क्या थे. पूरी फिल्म देख कर ऐसा लगा कि निर्देशक ने पहले से सोच लिया है कि मुझे ये ये दिखाना है और ये ये बुलवाना है और जब जैसा दाव दिखा, दिखा दिया. जो सामने आया, उससे बुलवा दिया. पुरानी दिल्ली की रामलीला वास्तव में जिस गंगा जमुनी तहजीब का हिस्सा है उसकी तो ऐसी तैसी ही कर दी. रामलीला पूरी फिल्म में हुई पर क्यों हुई? पता नहीं चला. कुल मिला कर मैं तो फिल्म देख कर निराश ही हुआ. इतना सुंदर विषय था. इतना अच्छा परिवेश हो सकता था कि फिल्म बहुत रोचक हो सकती थी पर कहानी और निर्देशन दोनों ही लिहाज से मैं तो फिल्म देख कर बेहद निराश ही हुआ... आपने फिल्म देखी है क्या? नहीं तो देखियेगा और बताईयेग और यदि देखी है तो भी बताईयेगा कि क्या मै गलत हूं..

Friday, February 20, 2009

प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम

प्यारे दोस्त,
आप सामाजिक रूप से सक्रिय, चिंतनशील और संवेदनाओ से भरे हैं. इसी नाते आपके कुछ अनुरोध करना है. सबसे पहले आपसे माफ़ी कि आपको व्यक्तिगत संबोधन के साथ नहीं लिख रहा हूँ. आप एक राजनीतिक काम की चुनौतियाँ समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे, ऐसी उम्मीद है.

'इंडिया-शायनिंग' और 'भारत-निर्माण' के सरकारी दावों के बीच मेहनतकश किसान-मजदूर या तो जलालत भरी जिंदगी जी रहें हैं या आत्म-हत्या कर रहें हैं. गाँव और बस्तियां उजड़ रही हैं. इस स्थिति की अनदेखी करना अब मुमकिन नहीं है. आज एक ओर अय्याशी के अड्डे बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की ७८ प्रतिशत जनता २० रुपये रोज से भी कम पर गुजर-बसर कर रही है. (अर्जुन सेनगुप्ता आयोग)
जरा कल्पना करके देखें कि २० रुपये रोज से भी कम पर जिंदगी कैसी होती होगी.
ऐसी भीषण स्थिति में हिंसा, द्वेष, अशांति और अस्थिरता पैदा होना स्वाभाविक है. इसे पुलिस या फौज से नहीं रोका जा सकता. भीख / दान या विकास कार्य के नाम पर कुछ टुकडे फ़ेंक देने से भी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता. किसी पुराने रोग से मुक्त होने के लिए बुनियादी कारणों को समझना और दूर करना जरूरी होता है.
प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम बढ़ाने के इसी नज़रिए से एक अभियान शुरू हुआ है. इसमे आपके सहयोग का निवेदन है. आपसे यह अपेक्षा नहीं है कि आप अपनी बाकी जिम्मेदारियों को छोड़ कर इस अभियान में कूद जायें. आपका थोड़ा सा सहयोग भी प्यार, शान्ति और न्याय से भरा समाज बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान होगा.
इस दिशा में क्या करना जरूरी है तथा आप और हम मिलजुल कर क्या कर सकते है, इसके लिए जल्द ही मिलने का मन बनाये. फ़ोन / चिट्टी / इ-मेल पर भी संवाद शुरू कर सकते है.

आपको इस अभियान की प्रेस-विज्ञप्ति भेज रहा हूँ. इसमें उठाये गए सवालों पर आपके विचार और टिप्पणी जान कर बहुत अच्छा लगेगा. अगर आपको यह अभियान उचित लगे तो आपसे अनुरोध होगा कि अपने अमूल्य समय और उर्जा का कुछ हिस्सा इसमें भी लगाया जाए.
स्नेह, आदर और शुभकामनायों के साथ,
पंकज पुष्कर

०११-२३९८१०१२ (फेक्स या संदेश देने के लिए)
९१ - ९८६८९८४४४२




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