Monday, February 23, 2009

मुझे तो इस पुरस्कार से कोई खुशी नहीं हुई. दुख हुआ, शर्म आई...

मुझे तो इस पुरस्कार से कोई खुशी नहीं हुई. दुख हुआ, शर्म आई. अंग्रेज पहले हमें ब्लैक डाग कहते थे अब एक और अंग्रेज ने स्लम डोग कह दिया और वह आज के दौर मै आजाद भारत के लोगों को पूरी दुनिया के सामने ऐसा कह पाया इस लिये उसे विदेश में ईनाम मिलना तय था...

हो सकता है आप मुझे कोसें, या आपको मेरी बात पर गुस्सा आये. पर सच बोल रहा हूं, जैसा महसूस कर रहा हू ठीक वैसा ही, अपने अब तक के प्राप्त ज्ञान और समझ के आधार पर. आस्कर के मिल जाने से मुझे तो कोई खुशी हो नहीं रही है. बल्की दुख हो रहा है, शर्म आ रही है. सोचिये हमें कैसा लगेगा यदि कोई हमरे घर के किसी बदहाल और दयनीय हिस्से को फोटो खींच कर जगजाहिर करके वाह वाही लूट लेगा तब. जिन गरीब लोगों के जीवन को दिखाया गया है और जिस तरह से दिखाया गया है, उसको देख कर क्या लगता है कि गरीबी, और मजबूरी का जैसे मखौल उडाया जा रहा है. जो झोंपडी मैं रहता है वह वहां क्यों रहता है , क्योंकि एक बडा तबका उनका शोषण करके अपना जीवन यापन कर रहा होता है. आज भी इस देश मे बहुत बडी जनसंख्या २० रुपये रोज से भी कम में अपना जीवन जी रही है ऐसे में हमे सोचना और समझना यह चाहिये कि क्यों ऐसा है कि एक तरफ तो ऐसे उद्योगप्ति है जो लाखों रुपये प्रति मिनट की आय अर्जित कर रहे है और दूसरी तरफ प्रकृति के नियम के एक दम खिलाफ लोगो को, परिवारों को इतनी जगह तक मोह्त्सर नहीं कि परिवार के ४ सद्स्य पूरे पैर फैला कर सो ही जाए, एक के ऊपर दूसरा पैर रख कर सोता है. मजबूरी की फिल्म, गरीब की कविताए, और गरीबों की कहानी में क्योंकी रुदन होता है. हमने अब से नहीं हमेशा से उन गरीबों की जिंदगी को मनोरंजन की वस्तु बनाया हुआ है. हम हंस्ते है. मनोरंजन से भर जाते है. वाह वाह कह उठते है. किसी के सपने कैसे बिखर रहे है, कोई कैसे घुट घुट कर तिल तिल हो कर मर रहा है यह सब कथानक की रूप में हमे खुश करता है, पुरुस्कार दिलात है. पर शर्म की बात है कि इस स्थिती को बदलने की पहल कोई नहीं करता. कल एक पोस्ट पढ रहा था भारतीय पक्ष पर प्रकाशित हुई थी कि एक डाक्टर है जो आज भी १ रुपये रोज की दवा देकर लोगों की सेवा कर रहा है. और ऐसे स्थान पर कर रहा है जहां पर उद्योग चौपट हो जाने से लोग बदहाल हो गये, वह चाहता तो क्या वह शहर मे आकर प्रैक्टिस नहीं कर सकता था, या वही रह कर उन गरीबो की गरीबी के फोटो खींच कर प्रदर्शनी न लगा लेता.. और पुरुस्कार पा जाता. यदि स्लम मे रहने वाले लोग कुत्ते से बदतर जिंदगी जी रहे है तो क्या इसका मजाक उडाया जाना चाहिये. एक मूर्ती हाथ मे लेकर नाचना चाहिये की हा हा स्लम डाग. शर्म ही नहीं आती हमे. कैसे युग के हम साक्षी बन गये जहां सरे आम मजबूर और गरीब बच्चो और लोगों को कुत्ता कहा जाता है, पुरुस्कार दिया जाता है विश्व साक्षी बन जाता है पर हम रीझें भी तो किस बात पर कि हमे कोई विदेशी पहले ब्लैक डाग कहते थे अब हमारी थोडी सी पर्सनैलिटी बदलते हुई स्लम डाग कह रहे है... क्या मजाक है... यार. .. और हम चुप है. ... हम कर भी क्या सकते है. ... जय हो!.... अधेर नगरी.....

Sunday, February 22, 2009

चू.... बन गये साहब! दिल्ली-६ देख कर

गांव में थे न जब बचपन में तो चाचा ताऊ कभी कभी दोनों कानों पर से अपनी हथेली से पकड कर सर से ऊपर सीधा उठा कर बोलते थे कि देख दिल्ली दिखी. हम बच्चों को दिखता विखता तो कुछ था नहीं बस कान बहुत तेज दर्द करने लगता था तो उस कान के दर्द से छुटकारा पाने के लिये कह दिया करते थे हां काका दिख गई. बडे चू... बनाये गये. ठीक ऐसी ही दिल्ली इन मेहरा साहब ने दिखा दी. सच बताऊं तो चू... ही बने. ठगे से उठ कर चले आये. पता नहीं किस जल्दी में था इस फिल्म को लिखने वाला, और उससे भी जल्दी में था निर्देशक. एक बात को सही से और ठहर कर स्थापित नहीं कर पाया. न तो चांदनी चौक ही ठीक से बता सका न जामा मस्जिद की तहजीब ही दिखा पाया. बल्लीमारन अपने आप में किसी सभ्यता से कम नहीं है जनाब आज भी पूरी दिल्ली में घूम जाओ और आपको यदि कोई खांटी पुरानी दिल्ली का आदमी टकरा जाये न, तो आप को एक मिनट लगेगी उसे पहचानने में. सभ्यता है वहां. वोह चाहे जैसी हो. बात तो फिल्म में जरूर करनी चाही उस सभ्यता की जहां कबूतर बाजी इश्क से भी कहीं ज्यादा तन्मयता के साथ लोग करते है. जहां का खान पान आज भी अंगुलियां चाटने को मजबूर करता है. जहां तीज त्योहार आज भी लोगों को उतने ही उत्साहित करते है. पर फिल्म बनाने वाला पता नहीं क्या सोच कर चांदने चौक गया और क्या देख कर मुड लिया. दिल्ली के रहने वाले या चांदनी चौक के रहने वालों से ही यह सवाल पूछा जाये कि फिल्म देख कर लगा कि आपने अपने घर और मोहल्ले की तस्वीर देखी है तो वह सर हिला देंगे. प्यार दिखाया तो वह बकवास. पुरानी दिल्ली मैं ऐसे प्यार हो सकता है भला? एक तरफ तो दिखा दिया कि बुढिया को मोहल्ले के लोग बडी मानते है. उनके लिये सब चिंतित है दूसरी तरफ उसके पोते की धुनाई भी उसी तन्मयता से कर दी. और पोते की पिटाई पर बुढिया कुछ नहीं बोली. दिल्ली में पोते को बेटे से ज्यादा प्यारा माना जाता है. मूल से ब्याज प्यारा की कहावत पोते को पुचकारते हुई कही जाती है. मजाक है क्या? काला बंदर को कोई एक प्रतीक बनाया जाता तो ठीक था, वह पता नहीं क्या क्या प्रतीक हो गया? सांप्रदायिकता को भी फिल्म स्टैब्लिश नही कर पाई. बिना वजह की थोपी हुई साम्प्रदायिकता दिखी.. बडे बडे नामचीन अभिनेता तो फिल्म मे थे पर उनके पात्र उस लिहाज से क्या थे. पूरी फिल्म देख कर ऐसा लगा कि निर्देशक ने पहले से सोच लिया है कि मुझे ये ये दिखाना है और ये ये बुलवाना है और जब जैसा दाव दिखा, दिखा दिया. जो सामने आया, उससे बुलवा दिया. पुरानी दिल्ली की रामलीला वास्तव में जिस गंगा जमुनी तहजीब का हिस्सा है उसकी तो ऐसी तैसी ही कर दी. रामलीला पूरी फिल्म में हुई पर क्यों हुई? पता नहीं चला. कुल मिला कर मैं तो फिल्म देख कर निराश ही हुआ. इतना सुंदर विषय था. इतना अच्छा परिवेश हो सकता था कि फिल्म बहुत रोचक हो सकती थी पर कहानी और निर्देशन दोनों ही लिहाज से मैं तो फिल्म देख कर बेहद निराश ही हुआ... आपने फिल्म देखी है क्या? नहीं तो देखियेगा और बताईयेग और यदि देखी है तो भी बताईयेगा कि क्या मै गलत हूं..

Friday, February 20, 2009

प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम

प्यारे दोस्त,
आप सामाजिक रूप से सक्रिय, चिंतनशील और संवेदनाओ से भरे हैं. इसी नाते आपके कुछ अनुरोध करना है. सबसे पहले आपसे माफ़ी कि आपको व्यक्तिगत संबोधन के साथ नहीं लिख रहा हूँ. आप एक राजनीतिक काम की चुनौतियाँ समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे, ऐसी उम्मीद है.

'इंडिया-शायनिंग' और 'भारत-निर्माण' के सरकारी दावों के बीच मेहनतकश किसान-मजदूर या तो जलालत भरी जिंदगी जी रहें हैं या आत्म-हत्या कर रहें हैं. गाँव और बस्तियां उजड़ रही हैं. इस स्थिति की अनदेखी करना अब मुमकिन नहीं है. आज एक ओर अय्याशी के अड्डे बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की ७८ प्रतिशत जनता २० रुपये रोज से भी कम पर गुजर-बसर कर रही है. (अर्जुन सेनगुप्ता आयोग)
जरा कल्पना करके देखें कि २० रुपये रोज से भी कम पर जिंदगी कैसी होती होगी.
ऐसी भीषण स्थिति में हिंसा, द्वेष, अशांति और अस्थिरता पैदा होना स्वाभाविक है. इसे पुलिस या फौज से नहीं रोका जा सकता. भीख / दान या विकास कार्य के नाम पर कुछ टुकडे फ़ेंक देने से भी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता. किसी पुराने रोग से मुक्त होने के लिए बुनियादी कारणों को समझना और दूर करना जरूरी होता है.
प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम बढ़ाने के इसी नज़रिए से एक अभियान शुरू हुआ है. इसमे आपके सहयोग का निवेदन है. आपसे यह अपेक्षा नहीं है कि आप अपनी बाकी जिम्मेदारियों को छोड़ कर इस अभियान में कूद जायें. आपका थोड़ा सा सहयोग भी प्यार, शान्ति और न्याय से भरा समाज बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान होगा.
इस दिशा में क्या करना जरूरी है तथा आप और हम मिलजुल कर क्या कर सकते है, इसके लिए जल्द ही मिलने का मन बनाये. फ़ोन / चिट्टी / इ-मेल पर भी संवाद शुरू कर सकते है.

आपको इस अभियान की प्रेस-विज्ञप्ति भेज रहा हूँ. इसमें उठाये गए सवालों पर आपके विचार और टिप्पणी जान कर बहुत अच्छा लगेगा. अगर आपको यह अभियान उचित लगे तो आपसे अनुरोध होगा कि अपने अमूल्य समय और उर्जा का कुछ हिस्सा इसमें भी लगाया जाए.
स्नेह, आदर और शुभकामनायों के साथ,
पंकज पुष्कर

०११-२३९८१०१२ (फेक्स या संदेश देने के लिए)
९१ - ९८६८९८४४४२




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