Sunday, February 22, 2009
चू.... बन गये साहब! दिल्ली-६ देख कर
गांव में थे न जब बचपन में तो चाचा ताऊ कभी कभी दोनों कानों पर से अपनी हथेली से पकड कर सर से ऊपर सीधा उठा कर बोलते थे कि देख दिल्ली दिखी. हम बच्चों को दिखता विखता तो कुछ था नहीं बस कान बहुत तेज दर्द करने लगता था तो उस कान के दर्द से छुटकारा पाने के लिये कह दिया करते थे हां काका दिख गई. बडे चू... बनाये गये. ठीक ऐसी ही दिल्ली इन मेहरा साहब ने दिखा दी. सच बताऊं तो चू... ही बने. ठगे से उठ कर चले आये. पता नहीं किस जल्दी में था इस फिल्म को लिखने वाला, और उससे भी जल्दी में था निर्देशक. एक बात को सही से और ठहर कर स्थापित नहीं कर पाया. न तो चांदनी चौक ही ठीक से बता सका न जामा मस्जिद की तहजीब ही दिखा पाया. बल्लीमारन अपने आप में किसी सभ्यता से कम नहीं है जनाब आज भी पूरी दिल्ली में घूम जाओ और आपको यदि कोई खांटी पुरानी दिल्ली का आदमी टकरा जाये न, तो आप को एक मिनट लगेगी उसे पहचानने में. सभ्यता है वहां. वोह चाहे जैसी हो. बात तो फिल्म में जरूर करनी चाही उस सभ्यता की जहां कबूतर बाजी इश्क से भी कहीं ज्यादा तन्मयता के साथ लोग करते है. जहां का खान पान आज भी अंगुलियां चाटने को मजबूर करता है. जहां तीज त्योहार आज भी लोगों को उतने ही उत्साहित करते है. पर फिल्म बनाने वाला पता नहीं क्या सोच कर चांदने चौक गया और क्या देख कर मुड लिया. दिल्ली के रहने वाले या चांदनी चौक के रहने वालों से ही यह सवाल पूछा जाये कि फिल्म देख कर लगा कि आपने अपने घर और मोहल्ले की तस्वीर देखी है तो वह सर हिला देंगे. प्यार दिखाया तो वह बकवास. पुरानी दिल्ली मैं ऐसे प्यार हो सकता है भला? एक तरफ तो दिखा दिया कि बुढिया को मोहल्ले के लोग बडी मानते है. उनके लिये सब चिंतित है दूसरी तरफ उसके पोते की धुनाई भी उसी तन्मयता से कर दी. और पोते की पिटाई पर बुढिया कुछ नहीं बोली. दिल्ली में पोते को बेटे से ज्यादा प्यारा माना जाता है. मूल से ब्याज प्यारा की कहावत पोते को पुचकारते हुई कही जाती है. मजाक है क्या? काला बंदर को कोई एक प्रतीक बनाया जाता तो ठीक था, वह पता नहीं क्या क्या प्रतीक हो गया? सांप्रदायिकता को भी फिल्म स्टैब्लिश नही कर पाई. बिना वजह की थोपी हुई साम्प्रदायिकता दिखी.. बडे बडे नामचीन अभिनेता तो फिल्म मे थे पर उनके पात्र उस लिहाज से क्या थे. पूरी फिल्म देख कर ऐसा लगा कि निर्देशक ने पहले से सोच लिया है कि मुझे ये ये दिखाना है और ये ये बुलवाना है और जब जैसा दाव दिखा, दिखा दिया. जो सामने आया, उससे बुलवा दिया. पुरानी दिल्ली की रामलीला वास्तव में जिस गंगा जमुनी तहजीब का हिस्सा है उसकी तो ऐसी तैसी ही कर दी. रामलीला पूरी फिल्म में हुई पर क्यों हुई? पता नहीं चला. कुल मिला कर मैं तो फिल्म देख कर निराश ही हुआ. इतना सुंदर विषय था. इतना अच्छा परिवेश हो सकता था कि फिल्म बहुत रोचक हो सकती थी पर कहानी और निर्देशन दोनों ही लिहाज से मैं तो फिल्म देख कर बेहद निराश ही हुआ... आपने फिल्म देखी है क्या? नहीं तो देखियेगा और बताईयेग और यदि देखी है तो भी बताईयेगा कि क्या मै गलत हूं..
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4 comments:
http://chavannichap.blogspot.com/2009/02/blog-post_21.html
DOST DARASAL DILLI DIL VALON KEE RAJDHNEE THEE AB HINDUSTAAN KE RAJDHANI BANNE KE BAAD KHUD DELHI MAI RAHKAR DILLI NAHEE MIL PAATEE. VYASTI JAB SAMASTI MAI SAMAAHIT HO JATEE HAI TO APNEE PEHCHAN KHO DETEE HAI.
ab tak toh yeh film nahi dekhi lekin ab aap ki post padhne ke baad dekhane ka man banaa liya hai, dekhate hi comment karungi
देख कर बतायेंगे.
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